अधिक आमदनी चाहते हैं तो इस तरह करें खस की खेती

- बीज या स्लिप्स के माध्यम से की जा सकती है खस की खेती
किसान कम मेहनत अधिक लाभ कमाना चाहते हैं तो खस की खेती करें। इसके लिए भूमि की विशेष तैयारी करने की जरूरत नहीं पड़ती। हालांकि रोपण से पहले खेत की दो से तीन बार जोताई करना पड़ता है इस दौरान वहां उगी खूंटी व घास जड़ से हटना जरूरी होता है। अंत में जोताई के समय गोबर की खाद को अच्छे से मिट्टी में मिला देना चाहिए।
खस की खेती बीज तथा स्लिप्स के माध्यम से की जा सकता है। हालांकि व्यावसायिक खस का प्रवर्धन स्लिप के माध्यम से किया जाता है। इसे तैयार करने के लिए एक वर्ष पुराने पौधे अथवा पुरानी फसल के गुच्छे निकालकर उसमें से एक-एक कलम अलग कर ली जाती है। स्लिप्स को तैयार करते समय हरी पत्तियों को काटकर अलग करना चाहिए। साथ ही नीचे की सूखी पत्तियों एवं लम्बी जड़ों को काटकर अलग कर देना चाहिए। इनकी लम्बाई 15 से 20 सें.मी. रखनी चाहिए। खेत तैयार होने के तुरंत बाद रोपाई प्रारंभ कर देनी चाहिए। अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए दक्षिण भारतीय परिस्थितियों में सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था होने पर जनवरी से अप्रैल तक रोपाई की जा सकती है। खस की खेती उपजाऊ दोमट से लेकर अनुपजाऊ लेटराइट मृदा में भी की जा सकती है। रेतीली दोमट मृदा, जिसका पीएच मान 8.0 से 9.0 के मध्य हो में खस की खेती में की जा सकती है। जहाँ वर्षा के दिनों में कुछ समय के लिए पानी इकट्ठा हो जाता है। एसी स्थिति में अन्य कोई फसल लेना संभव नहीं होता है, खस की खेती एक विकल्प के रूप में की जा सकती है।
खस के जड़ों के विकास के लिए 25 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त
खस की अच्छी पैदावार के लिए शीतोष्ण एवं समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है। यह 15 डिग्री से 55 डिग्री सेल्सियस तापमान को सहन कर सकती है। इसकी जड़ों की वृद्धि एवं विकास के लिए 25 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त होता है जबकि 5 डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान में इनकी जड़ों का विकास रुक जाता है। अत्यधिक ठंडी परिस्थितियों में इसके तने सुषुप्तावस्था में बैंगनी रंग के हो जाते हैं या मृत हो जाते हैं। भूमिगत बढ़वार वाला हिस्सा जीवित रहता है और अनुकूल परिस्थितियाँ आते ही, इसकी स्थिति में सुधार होता है और फिर से अपनी बढ़वार प्राप्त कर लेता है।
जलभराव की स्थिति में भी रहता है जीवित
खस को 8 से 10 पी - एच मान वाले क्षारीय मृदा में भी उगाया जा सकता है। इसके अलावा इसे भारी और मध्यम श्रेणी की मृदा में इसकी खेती की जा सकती है। बलुई एवं बलुई दोमट मृदा में जड़ों की खुदाई पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है तथा जड़ें लम्बी गहराई तक जाती है। यह वेटिवर प्रदूषित पानी में घुलित भारी धातुओं को भी अवशोषित करता है एवं आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, निकल, सीसा, पारा, सेलनियम और जस्ता को भी सहन कर सकता है।
इनमें होता है खस उपयोग
खस की जड़ों से निकाला गया सुगंधित तेल मुख्यतः: शरबत, पान मसाला, तम्बाकू, इत्र, साबुन तथा अन्य सौन्दर्य संसाधनों में प्रयोग किया जाता है। इसकी सुखी हुई जड़ें लिनन व कपड़ों में सुगंध हेतु प्रयुक्त की जाती हैं।
त्वचा संबंधी बीमारी में इनका खास उपयोग
खस का इस्तेमाल सिर्फ ठंडक के लिए नहीं होता, अपितु आयुर्वेद जैसी परंपरागत चिकित्सा प्रणालियों में औषधि के रूप में भी होता है। यह जलन को शांत करने और त्वचा संबंधी विकारों को दूर करने में प्रभावी होता है
हर भूमि पर की जा सकती है खेती
खस की जड़ों से प्राप्त सुगंधित तेल की कीमत राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 20 से 25 हजार रुपये प्रति लीटर तक है और खास बात यह है की इसकी खेती बाढ़ग्रस्त, बंजर या पथरीली भूमि के साथ ही प्रत्येक जगह पर की जा सकती है। ऐसे में खस की खेती उन किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती हैं।
उत्तर भारत में खस के जड़ों की गुणवत्ता अच्छी होती है
वैसे तो दक्षिण भारतीय राज्यों में खस की जड़ों की उत्पादन क्षमता ज्यादा है, लेकिन इससे निकले तेल की कीमत कम मिलती है। उत्तरी भारत में उगने वाले खस की जड़ों की गुणवत्ता काफी अच्छी होती है तथा इसकी कीमत भी ज्यादा मिलती है। उत्तरी भारत में उत्पादित खस की जड़ों से तेल 14 से 18 घंटों में आसवन विधि द्वारा निकला जाता है, जबकि दक्षिण भारत में उत्पादित खस की जड़ों से 60-70 घंटों में तेल निकाला जाता है। उत्तरी भारत में उत्पादित तेल की वर्तमान कीमत लगभग 10,000 से 18,000 रुपये प्रति किलोग्राम मिल सकती है। विश्व बाजार में खस तेल की वर्तमान कीमत लगभग 25,000 रुपये प्रति किलोग्राम है।
खस की उन्नत किस्में
सीएसआईआर-सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित की गई है। इनमें मुख्य प्रजातियाँ धारिणी, खुसनालिका, केएस-1, केशरी, गुलाबी, सिम-वृद्धि, सीमैप खस-15, सीमैप खस-22 और सिम-समृद्धि हैं। ये प्रजातियाँ व्यावसायिक खेती में अपनी विभिन्न सुगंधों के कारण उपयोग में लाई जाती है। इन प्रजातियों में अन्य प्रजातियों की तुलना में जड़ों का उत्पादन एवं तेल की मात्रा अधिक पाई जाती है। सिम-समृद्धि, सीमैप, लखनऊ द्वारा एक नई किस्म विकसित की गई किस्म है, इसे सिम-समृद्धि कहा जाता है। इसमें प्रमुख सुगंध तत्व खुसीलाल 30 प्रतिशत से अधिक और खुसोल 19 प्रतिशत से अधिक शामिल है। इस किस्म में 20 प्रतिशत से अधिक तेल उपज देने की क्षमता है। इसके अलावा इस किस्म को अनुपयोगी या कम उपयोग वाली मृदा में भी उगाया जा सकता है।
रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई अति आवश्यक है। असिंचित दशा में रोपण के लिए सबसे उपयुक्त समय मानसून के शुरुआत (जून से अगस्त) का होता है। स्लिप्स को 8 से 10 सें.मी. की गहराई पर 60 सें.मी. पंक्ति की दुरी एवं 45 सें.मी. पौधे से पौधे की दुरी पर रोपाई किया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिए 50,000 से 75,000 स्लिप्स पर्याप्त रहती है।
खस की खेती के लिए सिंचाई और खाद
खस के पौधों को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती है, हालांकि शुष्क क्षेत्रों में अधिक उपज प्राप्त करने के लिए 6 से 8 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ वर्षा अच्छी होती है एवं वर्षभर नमी बनी रहती है, सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
इन सामग्रियों का प्रयोग करना चाहिए
खस की फसल में 120 किलोग्राम नाईट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष डालना चाहिए। खेती की तैयारी के समय फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी खुराक दी जाती है। बेहतर परिणाम के लिए 3 महीने के अंतराल में नाईट्रोजन की पूरी खुराक दो बराबर भागों में दी जाती है।
कीट रोगों का नियंत्रण
खस की फसल पर कुछ कीटों एवं रोगों का संक्रमण बरसात के मौसम में देखने को मिलता है। इसकी फसल में कभी-कभी लीफ-स्पॉट एवं फ्यूजेरियम का आक्रमण देखने को मिलता है। इस प्रकार के रोगों से बहुत कम नुकसान होता है। दीमक एवं स्केट का प्रकोप रोपाई के तुरन्त बाद दिखाई पड़ता है। इनकी रोकथाम के लिए मेलाथियाँन (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए। दीमक की रोकथाम के लिए 500-600 मि.ली. हेक्टेयर क्लोरोपायरिफाँस का सिंचाई के पानी के साथ छिड़काव करने पर कीटों के प्रकोप पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
आसवन एवं तेल का भण्डारण
जड़ों की खुदाई के तुरंत बाद या 1-2 महीने रखने के बाद भी तेल निकला जा सकता है। आसवन से पहले इसकी जड़ों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लेना चाहिए। इसके बाद आसवन (तेल निकालने की विधि) से पहले 1-2 दिनों के लिए छाया में सुखा लिया जाता है। सुखाने के बाद हाईड्रो या भाप आसवन विधि के माध्यम से जड़ों से तेल निकाला जाता है। उत्तरी भारत किस्मों में आसवन की प्रक्रिया 12-14 घंटों में पूरी होती है, जबकि दक्षिण भारतीय किस्मों में 72-96 घंटे की लंबी अवधि की आवश्यकता होती है। इसमें कम वाष्पशील तेल और उच्च क्वथानांक होते हैं। आसवन पूरा होने के बाद इसे दुसरे बर्तन में डालकर छान लेते हैं।
What's Your Reaction?






