ईसबगोल : उन्नत खेती की जानकारी

ईसबगोल एक बहुत ही महत्वपूर्ण औषधीय फसल है, इसके अन्य नामों में फलीसीड एवं प्लांटैन सीड भी प्रचलित हैं। भारत में इसका उत्पादन मुख्यतः गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में होता है। वहीं यदि दुनिया की तो ईरान, इराक़ और फ़िलीपीन्स भी इसके प्रमुख उत्पादक देश हैं। ईसबगोल, भारतीय चिकित्सा पद्धति (आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध तथा होम्योपैथी) में उपयोग होने वाली एक महत्वपूर्ण औषधी में से एक है। ईसबगोल के सूखेबीज एवं भूसी को मुख्य रूप से पेट के विकार, त्रिदोष, जलन, कब्ज, गला बैठना, जठरशोथ, पुराने दस्त, पेचिश के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है।
उन्नत किस्में
देश में स्थित कई विश्वविद्यालयों के द्वारा ईसबगोल की कई नई उन्नत किस्में विकसित की गई हैं। जिनमें गुजरात ईसबगोल-1, गुजरात ईसबगोल-2, गुजरात ईसबगोल-3, जवाहर ईसबगोल-4, हरियाणा ईसबगोल-5, निहारिका, मयूरी एवं वल्लभ ईसबगोल-1 आदि किस्में शामिल हैं। किसान अपने क्षेत्र की जलवायु एवं उपलब्धता के आधार पर क़िस्मों का चयन कर खेती कर इसकी खेती कर सकते हैं।
रबी के मौसम उगाई जाने वाली फसल
यह एक ठंडी एवं शुष्क जलवायु वाले रबी के मौसम में उगाई जाने वाली फसल है। इसके बीज के जमाव हेतु 20–35 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान एवं फसल परिपक्वता के समय 30 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान अच्छा माना जाता है। इसकी खेती 500 से 1250 मि.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है। अधिक आर्द्रता एवं नमीयुक्त जलवायु में इसकी खेती नहीं करनी चाहिए।
खेती के लिए उपयुक्त है बलुई दोमट मिट्टी
खेती के लिए 7.2-7.9 पी.एच. मान वाली बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है। मृदा, जीवांश पदार्थों से समृद्ध, अवांछनीय पदार्थों से मुक्त एवं उचित जलनिकास व्यवस्था वाली होनी चाहिए। औषधीय पादप होने के कारण यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी में किसी भी प्रकार का अंतर्निहित कीटनाशी अथवा रोगनाशी रसायनों का उपयोग नहीं किया गया है।
उत्पादन के लिए ऐसे करें खेत की तैयारी
खेती के लिए खेत को पहले 2-3 बार डिस्क हैरो या हल के माध्यम से जुताई कर अच्छी तरह पाटा चलाकर समतल करके तैयार कर लेना चाहिए। अच्छी उपज के लिए गोबर की सड़ी हुई खाद 10–15 टन प्रति हेक्टेयर दूसरी व तीसरी जुताई के बीच खेत में मिला देनी चाहिए। सिंचाई की सुविधा के लिए मिट्टी के प्रकार और ढलान के आधार पर पुरे क्षेत्र को उपयुक्त आकर के छोटे–छोटे भूखंडों में विभाजित कर लेना चाहिए। हल्की मिट्टी के लिए 8–12 मीटर × 3 मीटर आकार के भूखंड उत्तम पाये गए हैं।
अक्टूबर से दिसंबर है बुआई का उचित समय
इसकी बुआई के लिए बीजदर 4–5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है। बीज अच्छी गुणवत्ता वाले कीट एवं रोगों से मुक्त होने चाहिए। बुआई का उचित समय अक्टूबर से दिसंबर है। बुआई से पहले बीजों को डाइफेनकोनाजोल की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसकी 30 × 5 सें.मी. के पौध अंतर पर बुआई की जाती है। बीजों को 2.5 सें.मी. गहराई में बोना चाहिए। इसके बीज बहुत छोटे होते हैं इसलिए इन्हें मिट्टी या छनी हुई गोबर की खाद के साथ मिलाया जाता है। इससे ये बुआई के समय बराबर मात्रा में वितरित हो जाते हैं। बुआई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। यदि बुआई के 6-7 दिनों बाद अंकुरण कम हो तो दूसरी सिंचाई करनी चाहिए।
ईसबगोल में खाद एवं उर्वरक का छिड़काव
अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 10–15 टन जैविक खाद को दूसरी व तीसरी जुताई के बीच खेत में मिला देना चाहिए। ईसबगोल को नाइट्रोजन की बहुत कम मात्रा की आवश्यकता होती है। इसलिए अकार्बनिक नाइट्रोजन का प्रयोग तब किया जाना चाहिए। जब मिट्टी में उपलब्ध नाइट्रोजन की मात्रा 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से कम हो तभी अतिरिक्त नाइट्रोजन का उपयोग करना चाहिए।
कब करें सिंचाई
वर्षा आधारित खेती में, फसल की बेहतर वृद्धि और उपज के लिए 2–3 जीवन रक्षक सिंचाई की जा सकती हैं। पहली सिंचाई बुआई के समय, दूसरी एवं तीसरी सिंचाई क्रमश: बुआई के 30 और 70 दिनों के बाद करनी चाहिए। अंतिम सिंचाई दुग्ध अवस्था में करना लाभदायक होता है। मिट्टी की नमी को संरक्षित करने एवं खरपतवार नियंत्रण हेतु जैविक पलवार को पंक्तियों के बीच फैलाया जाना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
कुंडों में बिखेरकर या कतार में बोये गये बीजों को बुआई के 25 से 30 दिनों बाद पौधों का आवश्यक दूरी के अनुसार विरलीकरण कर लेना चाहिए। बुआई के लगभग 20–25 दिनों बाद पहली निराई की आवश्यकता पड़ती है। प्रारंभिक अवस्था में एक निराई पौधों को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए पर्याप्त हैं। एक बार फसल स्थापित हो जाने के बाद खरपतवार अधिक नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं।
कीट नियन्त्रण
माहूं कीट, ईसबगोल की फसल को मुख्य रूप से नुकसान पहुंचाते हैं। ये सामान्य तौर पर बुआई के 50-60 दिनों बाद दिखाई देते हैं। इनसे फ़सल को बचाने के लिए नीम, चित्रकमूल, धतुरा और गौमूत्र से जैव कीटनाशक तैयार कर जरूरत पड़ने पर छिड़काव करना चाहिए। एजाडिरेक्टिन 1 प्रतिशत और फ्लेवेनाँइडस 6 प्रतिशत के 2-3 छिड़काव करने पर भी इनका नियंत्रण किया जा सकता है।
ईसबगोल की फसल को सफेद गिडार एवं दीमक कीट भी नुकसान पहुंचाते हैं। दीमक प्रभावित क्षेत्रों में 500 किलो अरण्डी की खली प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय भूमि में मिला देनी चाहिए। उपरोक्त विधियों को अपनाने के बाद भी यदि पौधों में कीट नियंत्रित न हों तो विषयवस्तु विशेषज्ञ के परामर्श के अनुसार रासायनिक कीटनाशियों का प्रयोग किया जा सकता है।
रोग प्रबंधन
मृदुरोमिल आसिता ईसबगोल में लगने वाला एक प्रमुख रोग है यह पेरोनोस्पोरा प्लाटैजिनिस के कारण होता है। इसमें कुछ अन्य कवकजनित रोग जैसे झुलसा एवं चूर्णिल आसिता का भी प्रकोप होता है। कभी-कभी आद्रगलन रोग एवं उकठा रोग द्वारा भी नुकसान की आशंका रहती है। इन सभी कवकजनित रोगों से बचाव हेतु बीजों को बुआई से पहले डाइफेनकोनाजोल की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। ईसबगोल एक औषधीय फसल है इसलिए जहाँ तक हो सके रासायनिक रोगनाशियों के उपयोग से बचना चाहिए।
कटाई और उत्पादन
बेहतर गुणवत्ता के लिए किसानों को फसल की कटाई सही अवस्था में करनी चाहिए। फसल बुआई के लगभग 110 से 120 दिनों बाद फरवरी से मार्च महीने के दौरान कटाई के लिए तैयार हो जाती है। फूल आने के लगभग 60–70 दिनों के बाद जब पौधों की पत्तियाँ पिली पड़ने लगती है व बालियाँ भूरी लाल दिखाई देने लगे, फसल को दरांती से काटकर जमीन पर सूखने के लिए रख दिया जाता है।
ईसबगोल के गुण एवं उपयोग
इसका सबसे उपयोगी भाग इसके बीज का छिलका यानि की भूसा होता है। इसकी भूसी लसदार होती है तथा पानी में भिगोकर रखने पर जिलेटिन की तरह फूल कर अपने मूल आयतन से कई गुनी हो जाती है। इसमें उच्च गुणवत्ता युक्त खाद्य रेशे होते हैं। इसकी भूसी अपचनीय होती है। इसके खाने पर यह पेट के अंदर फूल कर मल के आयतन को बढ़ा कर उसे ढीला कर देती है जिससे मल विसर्जन में आसानी होती है।
इसके इसी गुण के कारण अजीर्ण (कब्ज) के घरेलू उपचार में इसका बहुत उपयोग किया जाता है। ईसबगोल की भूसी को विदेशों में एक सुरक्षित तथा प्रभ्वी रेचक के रूप में उपयोग किया जाता है। वस्तुतः ईसबगोल संपूर्ण पाचन तंत्र को पुनः सामान्य स्थिति में लाता है। इसी कारण इसका उपयोग पुराने अजीर्ण के साथ-साथ अतिसार, पेचिश, बड़ी आँत में होने वाले ब्रणयुक्त सूजन, पेट दर्द, अफ़ारा, बवासीर जैसे रोगों के उपचार में भी किया जाता है। ईसबगोल शरीर के वजन को भी नियंत्रित करता है। जनन-मूत्रीय पथ में शेल्ष्मश्राव अवस्था वाले रोगियों को भी ईसबगोल के सेवन से लाभ होता है।
इसका जैली जैसे लासा आंतों में एकत्र विषाक्त पदार्थों को अवशोषित कर उन्हें साफ व स्वस्थ्य बनाता है। यह रक्त में कोलेस्ट्रॉल तथा लिपिड्स के स्तर को कम करने तथा धमनियों में वसा के जमाव की रोकथाम तथा उपचार में सहायक सिद्ध हुआ है। अतः उच्च रक्तचाप तथा हृदय के अन्य रोगों की रोकथाम तथा उपचार में भी इसे उपयोगी माना जाता है। मधुमेह के रोगियों में ग्लूकोस के स्तर को नियंत्रित करने में भी इसे उपयोगी पाया जाता है। इसके अलावा कीटदंश तथा त्वचा की जलन के उपचार में भी इसे प्रयोग में लाया जाता है।
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