जैविक खेती से उगाई गई आलू की फसल बेहद लाभदायक

आलू देश ही नहीं बल्कि विश्व की महत्वपूर्ण फसलों में से एक है। इसकी मांग पूरे वर्ष रहती है। ऐसे में किसान जैविक तरीके आलू की खेती कर गुणवत्ता युक्त पैदावार प्राप्त कर सकता हैं। इससे उन्हें बाजार में अच्छे भाव मिलने और उनकी आमदनी में पहले से वृद्धि होगी। ठंडे मौसम में जहां पर पाले का प्रभाव नहीं रहता वहां आलू की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। क्योंकि आलू के बीजों का निर्माण 20 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर सबसे अधिक होता है और जैसे-जैसे तापमान बढ़ता जाता है, वैसे ही बीजों के निर्माण में भी कमी होने लगती है जबकि तापमान 30 डिग्री सेल्सियस होने पर बीजों का निर्माण रुक जाता है।
खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे अच्छी
यूं तो क्षारीय को छोड़कर आलू को सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है लेकिन जीवाश्मयुक्त दोमट मिट्टी इसके लिए सबसे अच्छी होती है। इसकी खेती के लिए मिट्टी का पी.एच. मान 5.2 से 6.5 अच्छा माना गया है। इसके बीज मिट्टी के अंदर पनपते है इसलिए मिट्टी का भुरभुरा होना जरूरी है। आलू की खेती के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए तथा दूसरी तथा तीसरी जुताई देसी हल या हैरो से करनी चाहिए।
बुआई का सही समय
आलू की बुआई अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के दूसरे सप्ताह तक की जा सकती है। जल्दी तैयार होने वाले आलू जब सितम्बर से अक्टूबर में बोयें जाते हैं, तब इन्हें बिना काटे ही बोना चाहिए, क्योंकि काटकर बोने से ये गर्मी के कारण सड़ जाते हैं, इससे फसल पैदावार में काफी नुकसान होता है।
आलू की नई उन्नत किस्में
अगेती किस्में – कुफरी चन्द्रमुखी, कुफरी अलंकार, कुफरी पुखराज, कुफरी ख्याति आदि हैं। आलू की यह किस्में 80 से 100 दिनों में तैयार हो जाती है। जिससे किसान इसके बाद अगली फसल ले सकते हैं।
मध्यम समय वाली किस्में – कुफरी बादशाह, कुफरी ज्योति, कुफरी बहार, कुफरी लालिमा, कुफरी सतलुज, कुफरी चिप्सोना-1, कुफरी पुष्कर आदि है। आलू की यह किस्में 90 से 110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।
देर से पकने वाली किस्में – कुफरी सिंदूरी और कुफरी बादशाह जिनकी पकने की अवधि 110 से 120 दिनों की है।
संकर किस्में – कुफरी जवाहर (JH-222), 4486-ई, JF–5106, कुफरी (JI-5857) और कुफरी अशोक (PJ– 376) आदि हैं।
विदेशी किस्में – कुछ विदेशी किस्मों को या तो भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल पाया गया है या अनुकूल ढाला गया है। इन किस्मों में अपटूडेट, क्रेग्स डिफाइन्स और प्रेसिडेंट आदि शामिल है।
बीज उपचार एवं बुआई प्रबंधन
जैविक खेती के लिए बीज व मृदा जनित रोगों से बचाव के लिए इसका बीजोपचार करना बहुत जरूरी है। किसान इसके लिए बीज को जीवामृत और ट्राईकोडर्मा विरिडी 50 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी के घोल में 15 से 20 मिनट तक भिगोकर रखें। आलू की बिजाई से पहले इन्हें छांव में सुखा लें। इस दौरान इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि ट्राईकोडर्मा क्षारीय मृदा के लिए उपयोगी नहीं है।किसान अपनी सुविधा के अनुसार आलू की बुआई समतल खेत में बुआई करके, समतल खेत में आलू बोकर उस पर मिट्टी चढ़ाकर, मेड़ो पर आलू की बुआई करके, पोटैटो प्लांटर कृषि यंत्र की मदद से या दोहरी कुंड विधि से कर सकते हैं।
सिंचाई प्रबंधन
आलू की फसल बराबर सिंचाई की जरूरत होती है। यह सिंचाई की संख्या, अंतर भूमि की किस्म और मौसम पर निर्भर करते हैं। आलू की फसल के लिए 60 से 65 सेंटीमीटर जल की जरूरत होती हैं। बुआई करने के 3 से 5 दिनों के बाद पहली सिंचाई हल्की करनी चाहिए।
जैविक आलू में खरपतवार नियंत्रण
जैविक फसल के साथ उगे खरपतवार को नष्ट करने के लिए इसकी फसल में एक ही बार निराई व गुडाई की जरूरत होती है। जिसे बुआई के 20 से 30 दिनों बाद कर देना चाहिए। इस दौरान यह ध्यान रखना जरूरी है कि भूमि के भीतर के तने बाहर न आएँ, नहीं तो वे सूर्य की रौशनी से हरे हो जाते हैं। आलू के पौधे जब 10 से 15 सेमी. ऊपर आ जाएं हो जाएं तब उन पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य बुआई के 25 से 30 दिनों बाद पहली सिंचाई के बाद करना चाहिए। यदि आलू की बुआई प्लान्टर मशीन से की गई है, तब मिट्टी चढाने की जरूरत नहीं होती है।
जैविक आलू में कीट व रोगों का नियंत्रण
आलू की जैविक खेती में रोगों व कीटों का नियंत्रण किसानों को कृषिगत, सस्य और जैविक विधि से ही करना होता है।
आलू में झुलसा रोग
आलू की फसल में झुलसा रोग लगने पर पत्तियों पर गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे बनते हैं और बीच में कुंडाकार घेरे साफ तौर पर दिखाई देते हैं और ग्रसित पत्तियां सुखकर गिर जाती हैं। धब्बे पत्तियों के अतिरिक्त तनों पर भी दिखाई पड़ते हैं।
रोगों का प्रबंधन
आलू की जैविक खेती के लिए 2 से 3 वर्षीय फसलचक्र अपनाना चाहिए। रोगरोधी प्रजातियाँ जैसे कुफरी-नवीन, सिंदूरी, जीवन, बादशाह, ज्योति, सतलज, आनन्द, गिरिराज, मेघा, चन्दन, धनमलाई आदि को लगाना चाहिए। बीज की बुआई 4 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से ट्राईकोडर्मा द्वारा शोधित करके ही करनी चाहिए। आलू की जैविक खेती में रोगग्रस्त पत्तों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए
प्रमुख कीट
माहू – यह कीट पत्तियों व तनों का रस चूसकर हानि पहुंचाता है। जिससे पत्तियाँ पिली पड़कर गिर जाती है और यह मोजैक रोग के प्रसारण में भी सहायक होता है।
पतंगा– यह कीट आलू के कंदों, खड़ी फसल और भंडारण दोनों स्थानों पर क्षति पहुंचाता है। इसका वयस्क कीट आलू की आँखों में अंडा देता है। इनसे 15 से 20 दिनों बाद इल्लियाँ निकलती हैं जो कंदों में घुसकर क्षति पहुंचाती है।
कटुआ – यह कीट खेत में खड़ी फसल तथा भण्डारित कंदों, दोनों पर ही आक्रमण करता है। इस कीट की विकसित इल्ली लगभग 5 सें.मी. लम्बी होती है और पत्तियों, तनों आदि पौधों के वायुवीय भाग को काटकर अलग कर देती है। दिन के समय यह भूमि के भीतर छुपी रहती है और रात में फसल को नुकसान पहुंचाती है।
कीटों का एकीकृत प्रबंधन
आलू की जैविक खेती के लिए गर्मी की गहरी जुताई करें।
इसकी शीघ्र समय से बुआई करें।
उचित जल प्रबंधन की व्यवस्था रखें।
इसमें येलो स्टिकी ट्रैप का प्रयोग करें।
माहूँ के लिए आलू की जैविक खेती में नमीयुक्त कीटनाशक का प्रयोग करें।
आलू की पैदावार
जैविक खेती के द्वारा आलू की पैदावार भूमि के प्रकार, खाद का उपयोग, किस्म तथा फसल की देखभाल सहित विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। सामान्य रूप से आलू की अगेती किस्मों से औसतन 250 से 400 क्विंटल और पिछेती किस्मों से 300 से 600 क्विंटल पैदावार प्राप्त की जा सकती है। यदि किसान अपने खेत में आलू की जैविक पद्धति अपनाते हैं तो शुरू के 1 से 2 वर्ष तक उत्पादन में 5 से 15 प्रतिशत तक गिरावट हो सकती है।
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